Thursday 15 September 2011

गुरूजी के पैर

एक गुरू के दो शिष्य थे। गर्मी की दोपहर थी, गुरू विश्राम कर रहे थे और दोनों उसकी सेवा कर रहे थे। गुरू ने करवट बदली—तो दोनों शिष्यों ने आधा-आधा गुरू को बांट रखा था सेवा के लिए, बायां पैर एक ने ले रखा था, दायां पैर एक ने ले रखा था—गुरू ने करवट बदली, तो बायां पैर दाएं पैर पर पड़ गया। स्वभावत: झंझट खड़ा हो गया।

गुरू तो एक है। शिष्य दो थे। तो जब दाएं पैर पर बायां पैर पड़ा, तो जिसका दायां पैर था उसने कहा, हटा ले अपने बाएं पैर को। मेरे पैर पर पैर! सीमा होती है सहने की। बहुत हो चुका, हटा ले। तो उस दूसरे ने कहा, देखूं किसकी हिम्मत है कि मेरे पैर को और कोई हटा दे। सिर कट जाएंगे, मगर मेरा पैर जहां रख गया रख गया। यह कोई साधारण पैर नहीं, अंगद का पैर है। भारी झगड़ा हो गया, दोनों लट लेकर आ गए।

यह उपद्रव सुनकर गुरू की नींद खुल गई, उसने देखी यह दशा—लट चलने वाले थे गुरू पर! क्योंकि जिसका दायां पैर था वह बाएं पैर को तोड़ डालने को तत्पर हो गया था। और जिसका बायां पैर था वह दाएं पैर को तोड़ डालने को तत्पर हो गया था। गुरू ने कहा, जरा रूको, तुम मुझे मार ही डालोगे। ये दोनों पैर मेरे हैं। तुमने विभाजन कैसे किया?

अज्ञानी भूल ही जाता है कि जो उसने बांटा है वे एक ही व्यक्ति के पैर हैं या एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। अज्ञानी लड़े। एक-दूसरे को नष्ट करने की चेष्टा की। जब सम्प्रदाय अज्ञानी के हाथ में पड़ता है, तब खतरा शुरू होता है। - ओशो

No comments:

Post a Comment