Thursday 15 September 2011

भारतवर्ष की पहचान है हिन्दी


हर साल राजभाषा दिवस पर पूरे देश में व्यापक स्तर पर हिन्दी की बात की जाती है। इसके बाद हम फिर एक साल तक कुछ नहीं करते। जैसे भाषा का भी एक पर्व हो, जिसे हमें मनाना है। इस अवसर पर राजनेता से लेकर अधिकारी सभी इस तरह की सकारात्मक बातें करते हैं मसलन संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है और कम से कम और कहीं नहीं तो केंद्रीय दफ्तरों में अंग्रेजी के साथ हर जगह हिन्दी लिखी जाती है। इससे सिद्ध होता रहता है कि संविधान का पालन हो रहा है और हिन्दी इस देश की राजभाष्ाा है।

जब हम किसी देश के अपने भूगोल में रहते हैं तो भाषा की एक संपर्क व्यवस्था के बीच रहना ही नहीं बल्कि व्यवहार भी करना होता है। भारत में शैक्षणिक और प्रशासनिक स्तर पर फिर से अंग्रेेजी के बढ़ते प्रभाव के बीच अब जनसंचार में लगने लगा है कि तेजी से अंग्रेजी आ रही है या कम से कम हिन्दी का प्रयोग अंग्रेजी को मिलाकर ही हो रहा है। इसे अब हिंगरेजी या हिंग्लिश कहा जाने लगा है। भाषा विज्ञान में यह कहा जाता है कि जब अविकसित भाषाएं विकसित भाषाओं के साथ मिलाकर बोली जाती हैं तो वे क्रियोल कहलाती हैं। इस अर्थ में हिन्दी क्रियोल भी नहीं है, क्योंकि ये अविकसित भाषा नहीं है। खड़ी बोली को अब हिन्दी कहा जाता है और हिन्दी में कभी अवधी और ब्रज को भाषाएं कहा गया था, वे अब बोलियां हो गई हैं। राजभाषा हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली हिन्दी ही है। आज इसी हिन्दी में हिन्दी का सारा साहित्य लिखा जा रहा है।

शिक्षण माध्यम के रूप में हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं की जगह अब अंग्रेजी लेती जा रही है। विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक कार्य भी अंग्रेजी में हो रहा है। इसका कारण यह बताया जाता है कि अब भूमंडलीयकरण के कारण अंग्रेजी जरूरी हो गई है। दूसरा कारण यह बताया जाता है कम्प्यूटर के प्रयोग में रोमन, नागरी से अधिक सुविधाजनक है। वैसे अब बिल गेट्स का ध्यान नागरी कम्प्यूटर की ओर भी गया है। अच्छा होता कि यदि भारतीय भाष्ााओं की एक लिपि नागरी होती विश्व के स्तर पर इस व्यापक समानता के कारण इस लिपि के एक अरब से ज्यादा उपयोग करने वाले होते। हमारा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशक बाद से ही केवल भाषा की राजनीति में जुट गया है। वोट बैंक की राजनीति के चलते हम किसी को नाखुश नहीं करना चाहते। सारा नजरिया इस बात का है कि कोई भी भाषा हो हमें क्या फर्क पड़ता है? इस उदासीनता के कारण ही संविधान में राजभाषा का दर्जा प्राप्त होते हुए भी शीर्षस्थ न्यायालयों में हिन्दी का प्रवेश नहीं हो पाया है। हिन्दी को राजनेताओं और नौकरशाहों से तो अधिक उम्मीद नहीं थी, पर हम जनसंचार माध्यमों से बड़ी उम्मीद रखते थे।

बॉलीवुड ने हिन्दी को विश्व परिदृश्य दिया था। जब हम विदेशी फिल्मों को हिन्दी में डब होते देखते थे तो बहुत अच्छी हिन्दी सुनने मिलती थी। यह परिदृश्य भी बड़ी तेजी से बदल रहा है। अब डबिंग में भी इतने अंगे्रजी शब्दों आ रहे हैं कि वे हिंग्लिश लगते हैं। हम तो यह भी नहीं कह सकते कि विश्व हिन्दी सम्मेलन एक उम्मीद जगाते हैं, क्योंकि केवल हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने से हिन्दी विश्व भाषा नहीं बन सकती। जो लोक प्रक्रिया को समझते हैं वे यह मानते हैं कि जब तक सरकार के स्तर पर विश्व के कम से कम 96 देशों का समर्थन नहीं मिलता तब तक हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बन सकती। स्वतंत्रता के पूर्व राजनेताओं ने यह अहसास किया था कि हिन्दी ही जनता की भाष्ाा है।

यह भारत के बहुसंख्यक समाज द्वारा बोली जाती है और इससे भी अधिक लोग इसे समझते हैं। इस बात की खुशी है कि हिन्दी भले ही राजभाषा न बन पा रही हो पर उसका जनभाष्ाा का रूप फैलता जा रहा है। इसी तरह बिना संयुक्त राष्ट्र की मान्यता के भी हिन्दी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। विदेशों में भी हिन्दी बोलने और समझने वालों की बहुतायत है। इस तरह भारत की पहचान हिन्दी से है।

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