भ्रष्टाचार और हिंसा के जिस माहौल का हम आज सामना कर रहे हैं और पीडित हैं, उसका बीजारोपण तो आजादी के साथ ही हो गया था। मैं पिछले कुछ बरसों से देख रही हूं कि इस देश का प्रशासन दिन पर दिन गिरावट की ओर चला जा रहा है। इसकी वजह है- बढ़ता भ्रष्टाचार और भ्रष्ट आचरण। व्यवस्थित रूप से हमारी महान संस्थाओं का महत्व दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। इसमें राजनीतिक, ब्यूरोक्रेटिक, पुलिस, कॉरपोरेट या सेवाक्षेत्र का नेतृत्व शामिल है। केवल एक ही चीज का महत्व रह गया है, वह है खुद के लिए और परिवार के लिए सम्पदा एकत्रित करना। देश तो बाद में आता है। अनेक मामले तो ऎसे भी देखे गए हैं कि लोग विदेश का रूख कर लेते हैं क्योंकि उन्हें यहां अपने लिए कोई भविष्य नहीं दिखाई देता। सच्चाई यही है। इस तथ्य को चाहे कोई स्वीकार करे अथवा नहीं।
हमें कठिन संघर्षो के बाद आजादी मिली है। अनगिनत भारतीयों ने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्तमान खो दिया। देश की बलिवेदी पर शहीद हो गए। हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की खातिर हर कदम पर समझौता कर लेते हैं, बजाए इसके कि अपने देश के नैतिक चरित्र और प्रकृति को मजबूत करें। हालात इतने बदतर हो चुके हैं और होते जा रहे हैं कि सार्वजनिक जीवन से जुड़े ऎसे एक भी व्यक्ति को तलाश पाना मुश्किल हो रहा है कि जिस पर "हम जनता के लोग" सच्चे अर्थो में विश्वास कर सकें। इस गिरावट के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? माता-पिता/अध्यापक/आध्यात्मिक शिक्षा देने वाले धर्मगुरू/ राजनीतिक नेताओं /मीडिया को? हमारे ऊपर सर्वाधिक प्रभाव कौन डाल रहा है? मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि अधिकांश चीजों के लिए राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार है। कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह वर्ग अधोगति या अवनति का कारण बना हुआ है। जैसे कि वे दिन-प्रतिदिन लोभी और लालची बनते जा रहे हैं। वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्रतिष्ठान को अपने पास रखे रहते हैं। बिना यह विचार किए इसके दीर्घकालीन परिणाम क्या होंगे जो वे समाज में अपने पीछे छोड़कर जा रहे हैं?
इस पर गौर कीजिए, आजादी के बाद से उन्होंने पुलिस का किस तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने पुलिस को अपने खुद के पैरों पर खड़ा नहीं होने दिया। वे पुलिस का अपने राजनीतिक एजेंडे के खातिर इस्तेमाल करते रहे। उन्होंने इसमें नेतृत्व को कभी नहीं बढ़ने दिया। कोई भी व्यक्ति, जो स्वतंत्र सोच वाला था, उसे पाश्र्व में रखा गया। मैं खुद अनेक दफा इससे पीडित हुई हूं। मेरे साथ नाइंसाफ हुआ है। जब दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद के लिए मेरी वरिष्ठता की अनदेखी की गई तो इसकी वजह क्या थी? मूल कारण क्या थे? विशुद्ध रूप से ईष्र्या और असुरक्षा का खतरा...। क्या सिविल सोसाइटी इसके खिलाफ कुछ कर सकती है? और कर सकती है? लाखों लोगों की संख्या वाला पुलिस बल अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वे मुश्किल से और नाममात्र ही अपने नेता की प्रशंसा कर सकते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों तक उनकी पहुंच कभी-कभार ही हो पाती है। उनकी कोई सुनने वाला नहीं। उन्हें स्थानीय "ठगों" की दया पर छोड़ दिया गया है या उन पर जो सत्ता के केन्द्रों तक पहुंच का दावा करते हैं। क्या पुलिस बल को चलाने का यह तरीका है? पुलिस विभाग से जुड़े अधिकांश लोग अपने आवास का और अपने बच्चों के लिए स्कूल का प्रबंध खुद करते हैं। उन्हें आसानी से छुट्टी भी नहीं मिलती, जबकि उनकी सेवाएं हर बंदोबस्त या इंतजाम के लिए ली जाती हैं! चाहे वह वीआईपी सुरक्षा हो या जनसभाएं। ज्यादा अधिक नहीं। लोगों ने अब विद्रोह कर दिया है। लोग सड़क पर उतर आए हैं। वे खुले आम सड़कों पर आकर मिथ्या और बनावटी प्रशासन के खिलाफ बोलने लगे हैं। उनकी आवाज को बल मिला है और लोग संगठित होकर साथ-साथ आगे आए हैं। ऎसे लोगों को एक बार फिर अहिंसक रूप में मजबूती के साथ देखा गया। उनकी अहिंंसा देखने काबिल थी। इसके लिए अन्ना हजारे धन्यवाद के पात्र हैं।
इस देश के लोगों को गुणवत्ता, उत्कृष्टता, समेकता और अखंडता के पीछे चलना चाहिए। नागरिकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे निर्बाध और स्वतंत्र रूप से बोलें और खुले तरीके से विचार-विमर्श करें। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र को विस्तृत करना चाहिए। उन्हें नेतृत्व के गुण बढ़ाने की अनुमति देनी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से पुलिस की एकाउंटिबिलिटी बढ़ानी चाहिए। उन्हें ब्यूरोक्रेट्स पर काम करने का दबाव बनाना चाहिए। अधिकारियों को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपनी टिप्पणियों में साफ-साफ लिखें कि जो वे सोचते हैं, वह सही है। लेकिन मंत्रियों के पास उनके प्रस्तावों को अस्वीकृत करने का अधिकार है। प्रशासन में जनता के विश्वास को फिर उत्पन्न करना चाहिए। यह सभी काम करने के लिए जरूरत है सत्यनिष्ठा की और ईमानदारी की। संसद ने भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक को पूरा समर्थन दिया है। अब इस पर पक्के इरादे की जरूरत है। एक बार लोकपाल बिल अस्तित्व में आ गया तो कई घोटाले सामने आएंगे और राजनेता व ब्यूरोक्रेट्स समेत काफी लोग घबड़ा उठेंगे। आप प्रकृति के नियम को नहीं बदल सकते। एक फसल काटता है तो एक बोता है। इस देश ने हिंसा, भ्रष्टाचार, भेदभाव और ढोंग की फसल बोई है। अब अपने किए का फल भोग रहे हैं।
आज से ही ईमानदारी की फसल बोना शुरू कीजिए और विश्वास की फसल कटना शुरू हो जाएगी।
किरण बेदी
पूर्व आईपीएस अधिकारी
हमें कठिन संघर्षो के बाद आजादी मिली है। अनगिनत भारतीयों ने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्तमान खो दिया। देश की बलिवेदी पर शहीद हो गए। हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की खातिर हर कदम पर समझौता कर लेते हैं, बजाए इसके कि अपने देश के नैतिक चरित्र और प्रकृति को मजबूत करें। हालात इतने बदतर हो चुके हैं और होते जा रहे हैं कि सार्वजनिक जीवन से जुड़े ऎसे एक भी व्यक्ति को तलाश पाना मुश्किल हो रहा है कि जिस पर "हम जनता के लोग" सच्चे अर्थो में विश्वास कर सकें। इस गिरावट के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? माता-पिता/अध्यापक/आध्यात्मिक शिक्षा देने वाले धर्मगुरू/ राजनीतिक नेताओं /मीडिया को? हमारे ऊपर सर्वाधिक प्रभाव कौन डाल रहा है? मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि अधिकांश चीजों के लिए राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार है। कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह वर्ग अधोगति या अवनति का कारण बना हुआ है। जैसे कि वे दिन-प्रतिदिन लोभी और लालची बनते जा रहे हैं। वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्रतिष्ठान को अपने पास रखे रहते हैं। बिना यह विचार किए इसके दीर्घकालीन परिणाम क्या होंगे जो वे समाज में अपने पीछे छोड़कर जा रहे हैं?
इस पर गौर कीजिए, आजादी के बाद से उन्होंने पुलिस का किस तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने पुलिस को अपने खुद के पैरों पर खड़ा नहीं होने दिया। वे पुलिस का अपने राजनीतिक एजेंडे के खातिर इस्तेमाल करते रहे। उन्होंने इसमें नेतृत्व को कभी नहीं बढ़ने दिया। कोई भी व्यक्ति, जो स्वतंत्र सोच वाला था, उसे पाश्र्व में रखा गया। मैं खुद अनेक दफा इससे पीडित हुई हूं। मेरे साथ नाइंसाफ हुआ है। जब दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद के लिए मेरी वरिष्ठता की अनदेखी की गई तो इसकी वजह क्या थी? मूल कारण क्या थे? विशुद्ध रूप से ईष्र्या और असुरक्षा का खतरा...। क्या सिविल सोसाइटी इसके खिलाफ कुछ कर सकती है? और कर सकती है? लाखों लोगों की संख्या वाला पुलिस बल अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वे मुश्किल से और नाममात्र ही अपने नेता की प्रशंसा कर सकते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों तक उनकी पहुंच कभी-कभार ही हो पाती है। उनकी कोई सुनने वाला नहीं। उन्हें स्थानीय "ठगों" की दया पर छोड़ दिया गया है या उन पर जो सत्ता के केन्द्रों तक पहुंच का दावा करते हैं। क्या पुलिस बल को चलाने का यह तरीका है? पुलिस विभाग से जुड़े अधिकांश लोग अपने आवास का और अपने बच्चों के लिए स्कूल का प्रबंध खुद करते हैं। उन्हें आसानी से छुट्टी भी नहीं मिलती, जबकि उनकी सेवाएं हर बंदोबस्त या इंतजाम के लिए ली जाती हैं! चाहे वह वीआईपी सुरक्षा हो या जनसभाएं। ज्यादा अधिक नहीं। लोगों ने अब विद्रोह कर दिया है। लोग सड़क पर उतर आए हैं। वे खुले आम सड़कों पर आकर मिथ्या और बनावटी प्रशासन के खिलाफ बोलने लगे हैं। उनकी आवाज को बल मिला है और लोग संगठित होकर साथ-साथ आगे आए हैं। ऎसे लोगों को एक बार फिर अहिंसक रूप में मजबूती के साथ देखा गया। उनकी अहिंंसा देखने काबिल थी। इसके लिए अन्ना हजारे धन्यवाद के पात्र हैं।
इस देश के लोगों को गुणवत्ता, उत्कृष्टता, समेकता और अखंडता के पीछे चलना चाहिए। नागरिकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे निर्बाध और स्वतंत्र रूप से बोलें और खुले तरीके से विचार-विमर्श करें। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र को विस्तृत करना चाहिए। उन्हें नेतृत्व के गुण बढ़ाने की अनुमति देनी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से पुलिस की एकाउंटिबिलिटी बढ़ानी चाहिए। उन्हें ब्यूरोक्रेट्स पर काम करने का दबाव बनाना चाहिए। अधिकारियों को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपनी टिप्पणियों में साफ-साफ लिखें कि जो वे सोचते हैं, वह सही है। लेकिन मंत्रियों के पास उनके प्रस्तावों को अस्वीकृत करने का अधिकार है। प्रशासन में जनता के विश्वास को फिर उत्पन्न करना चाहिए। यह सभी काम करने के लिए जरूरत है सत्यनिष्ठा की और ईमानदारी की। संसद ने भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक को पूरा समर्थन दिया है। अब इस पर पक्के इरादे की जरूरत है। एक बार लोकपाल बिल अस्तित्व में आ गया तो कई घोटाले सामने आएंगे और राजनेता व ब्यूरोक्रेट्स समेत काफी लोग घबड़ा उठेंगे। आप प्रकृति के नियम को नहीं बदल सकते। एक फसल काटता है तो एक बोता है। इस देश ने हिंसा, भ्रष्टाचार, भेदभाव और ढोंग की फसल बोई है। अब अपने किए का फल भोग रहे हैं।
आज से ही ईमानदारी की फसल बोना शुरू कीजिए और विश्वास की फसल कटना शुरू हो जाएगी।
किरण बेदी
पूर्व आईपीएस अधिकारी
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