Thursday, 15 September 2011

परमात्मा का चांद

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि जब वे गीतांजलि लिख रहे थे, तो पkा नदी पर एक बजरे में निवास करते थे। रात गीत की धुन में खोए—कोई गीत उतर रहा था, उतरे चला जा रहा था—वे एक टिमटिमाती मोमबत्ती को जलाकर बजरे में और देर तक गीत की कडियों को लिखते रहे। कोई आधी रात फूंक मारकर मोमबत्ती बुझाई, हैरान हो गए। पूरे चांद की रात थी, यह भूल ही गए थे। यद्यपि वे जो लिख रहे थे वह पूरे चांद का ही गीत था। जैसे ही मोमबत्ती बुझी कि बजरे की उस छोटी सी कोठरी में सब तरफ से चांद की किरणें भीतर आ गई। वह छोटी सी मोमबत्ती की रोशनी चांद की किरणों को बाहर रोके हुए थी। रवीन्द्रनाथ उस रात नाचे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि आज एक अपूर्व अनुभव हुआ। कहीं ऎसा ही तो नहीं है कि जब तक यह अहंकार का दीया भीतर जलता रहता है, परमात्मा का चांद भीतर नहीं आ पाता। यही बुद्ध ने कहा है कि अहंकार के दीए को फूंक मारकर बुझा दो। दीए के बुझाने का ही नाम निर्वाण है।

तो एक तो जीवन को जीने का ढंग है, जैसा तुम जी रहे हो। एक बुद्धों का ढंग भी है। चुनाव तुम्हारे हाथ में है। तुम बुद्धों की भांति भी जी सकते हो—जैसा तुम जी रहे हो—कोई तुम्हें जबर्दस्ती जिला नहीं रहा। तुमने ही न मालूम किस बेहोशी और नासमझी में इस तरह की जीवन-शैली को चुन लिया है। सब बनाया तुम्हारा ही खेल है। ये सब जो घर तुमने बना लिए हैं अपने चारों तरफ, जिनमें तुम खुद भी कैद हो गए हो।
-ओशो

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