अन्ना हजारे के आंदोलन के चलते देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ वातावरण बनने लगा है। लेकिन राजस्थान में अब भी उल्टा चक्र चल रहा है। यहां सरकार भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में पूरा दम लगा रही है। न सिर्फ मामले दबाए जा रहे हैं, बल्कि कोशिश की जा रही है कि भूल से भी ऎसी प्रणाली नहीं बन जाए, जिससे भ्रष्टाचार उजागर होने लग जाए।
पिछले दो-तीन वर्षो से राजस्थान में सरकार की शीर्ष प्राथमिकता जाति के आधार पर नियुक्तियां करने की हो गई है, जिसे "सोशल इंजीनियरिंग" नाम दिया गया है। भ्रष्टाचार से निपटने का एजेडा कचरा पेटी में डाल दिया गया है।
ताजा उदाहरण प्रस्तावित लोकसेवाओं की अदायगी एवं सुनवाई गारंटी विधेयक के हश्र का है। पिछले बजट में घोषणा के बावजूद इसे शायद इसलिए विधानसभा के अगले सत्र में नहीं लाया जा रहा क्योंकि ऎसा हो गया तो भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों व कर्मचारियों के खाने-कमाने के रास्ते बंद हो जाएंगे। नहीं लाने के लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े जा रहे हैं। लेकिन असलियत सिर्फ मंशा की है। मंशा होती है तो चौबीस घंटों में सचिवालय से उदयपुर तक फाइलें सरपट दौड़ा कर अवैध खानें आवंटित कर दी जाती हैं। मंशा नहीं हो तो कानों में रूई ठूंस ली जाती है।
लोकसेवा गारंटी विधेयक आता तो अफसरों को जनता से जुड़े -राशन कार्ड, बीपीएल कार्ड, बिजली-पानी कनेक्शन, शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिले, वाहन लाइसेंस, जमीन के रिकार्ड की प्रति देने, चिकित्सा सेवा, पेंशन जैसे कार्य निर्घारित अवधि में हर हाल में पूरे करने पड़ते। यानी खाने-कमाने के रास्ते बंद! वह भी ऎसी कमाई जिसका हिस्सा ऊपर तक पहुंचता है। इसे कौन लागू होने देता? इसलिए विधेयक की फाइल ठंडे बस्ते में डाल दी गई। यदि विधेयक आया भी तो उसे सुनवाई का अधिकार हटाकर लचर बना दिया जाएगा।
मंत्री-अफसर मिलकर भ्रष्टाचार छिपाने के नए-नए तरीके ईजाद कर लेते हैं। केन्द्र में जन लोकपाल की बात हो रही है पर राजस्थान में लोकायुक्त के पास जांच एजेंसी तक नहीं है। लोकायुक्त की रिपोर्ट कभी जनता के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाती, उन पर कार्रवाई होना तो दूर की बात है। तमाम जांच आयोग बनते हैं, पर उनकी रिपोर्ट भी दबा दी जाती है। आयोग की रिपोर्टे तो क्या, बीज कंपनियों और झील कब्जाने वाली कंपनी के साथ हुए एम.ओ.यू. को भी छुपा कर रखा जाता है ताकि उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार की पोल न खुल जाए। कई बार तो मंत्री तक विधानसभा में बेशर्मी से घोटालेबाजों की पैरवी करते नजर आते हैं।
शर्म की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बावजूद मंत्रियों को पदों से हटाया नहीं जाता। चाहे वन भूमि में खान चलाने का मामला हो, अवैध क्रेशर चलाने का अथवा आटा पिसाई में गड़बड़ी का। मंत्रियों को बेशर्मी से पदों पर बनाए रखा जाता है।
भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बनाए गए सतर्कता आयुक्त व अधिकारी के पद सजावटी बन कर रह गए हैं। कई सतर्कता अधिकारी तो खुद दागी हैं, फिर भी चल रहे हैं। सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने वाले को इतने चक्कर खिलाए जाते हैं कि अगला आवेदन लगाना भूल जाए। सूचनाओं के स्वैच्छिक प्रदर्शन को तो सरकारी अफसर अपनी तौहीन समझते हैं।
इंटरनेट को पारदर्शिता का सबसे अच्छा साधन माना जाता है, पर राजस्थान में वेबसाइटें ही अपडेट नहीं की जातीं। सरकारी खरीद के लिए ई-टेंडरिंग के विधेयक को भी भुला दिया गया क्योंकि इस बिल केआने से कमीशनखोरी के रास्ते बंद हो जाएंगे। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो यदि भ्रष्टाचार के मामले बना भी ले तो मुकदमे चलाने की मंजूरी की फाइलें नोटों के वजन के नीचे दब जाती हैं। जितना बड़ा भ्रष्टाचारी अफसर होता है, सेवानिवृत्ति के बाद उसे उतने ही "एक्सटेंशन" दे दिए जाते हैं।
केन्द्र ने तो फिर भी कुछ भ्रष्ट मंत्रियों को सींखचों में डाला है, पर राजस्थान में जातिगत समीकरणों के आधार पर उन्हें खुले हाथ खेलने की छूट दी गई है। "भ्रष्टाचार" को राजस्थान में "शिष्टाचार" बनाने वालों को याद रखना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं में चल रही लहर जिस दिन राजस्थान पहुंचेगी, भ्रष्टाचार को छुपाने वालों को प्रायश्चित का मौका भी नहीं मिलेगा।
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