Wednesday, 21 September 2011

मेरी प्यारी माँ ....


आज यूंही बैठे बैठे आंखे भर आई हैं
कहीं से मां की याद दिल को छूने चली आई हैं
वो आंचल से उसका मुंह पोछना और भाग कर गोदी मे उठाना
रसोई से आती खुशबु आज फिर मुंह मी पानी ले आई है
बसा लिया है अपना एक नया संसार
बन गया हूं मैं खुद एक का अवतार
फिर भी न जाने क्यों आज मन उछल रहा है
बन जाऊं मै फिर से नादान्
सोचता हूं, है वो मीलों दूर बुनती कढाई अपने कमरे मे
नाक से फिसलती ऍनक की परवाह किये बिना
पर जब सुनेगी कि रो रहा है उसका बेटा
फट से कहेगी उठकर,"बस कर रोना अब तो हो गया है बड़ा"
फिर प्यार से ले लेगी अपनी बाहों मे मुझको
एक एह्सास दिला देगी खुदाई का इस दुनियां मे.
जाडे की नर्म धूप की तरह आगोश मे ले लिया उसने
इस ख्याल से ही रुक गये आंसू
और खिल उठी मुस्कान मेरे होठों पर....."

Tuesday, 20 September 2011

आज की युवा पीढ़ी एवम हमारा समाज..

सभी को सबसे पहले सादर प्रणाम,
मेरी समझ में ये नहीं आता है की एक तरफ हमारा युवा वर्ग देश की समश्याओं को सही करने के लिए अन्ना हजारे जी के साथ भी जुड़ रहा है बाबा रामदेव जी के साथ भी जुड़ रहा है..या अपने अपने स्तर पर जागरूक हो रहा है सभी देश हित की बात करते हैं ..लेकिन दूसरी तरफ हमारे समाज में फैली गंभीर समस्याओं की और भी सभी युवाओं को  ध्यान देना चाहिए ....


           आजकल की अधिकतर युवा पीढ़ी बड़ों का सम्मान करना भूल सी गयी है संस्कारों का अभाव देखने को कहीं भी मिल सकता है युवाओं की आम बोलचाल की भाषा में गाली गलोच घुलमिल गयी है ,युवा पीढ़ी गांजा, शराब,जुआ ,सिग्रेट जैसे नशे की बुरी लत में पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर रही है..एवम अधिकतर बुडे बुजुर्ग लोगो की जिंदगी घर  के एक कोने में बेबस सी होकर रह गयी है क्योंकि बिना संस्कारित बेटे आज अपने बाप के बाप बन रहे हैं  कुछ तो इतने निर्लज्ज बेटे हैं जो अपने माँ बाप को घर में रखना ही पसंद नहीं करते हैं और किसी ब्रद्द आश्रम में जिंदगी के आखिरी पल काटने को मजबूर कर रहे हैं....क्या  हमारा समाज सही दिशा को जा रहा है..जिन माँ बाप ने पाला पोसा बड़ा किया उनका ही बाद में अनादर किया जा रहा है..


                  में भी युवा हूँ चारो तरफ समाज में फैली कुरीतियों को देखकर बड़ा द्रवित होता हूँ  मेरी नजर में हमारे समाज के बुद्दिजीवी वर्ग को एवम युवाओं को इन संगीन मुद्दों पर भी ईमानदारी से बहस करना चाहिए एवम सही विकल्प तलाशना चाहिए..ये मुद्दे अन्य मुद्दों से किसी भी हाल में कम गंभीर नहीं हैं हमें समाज सुधार की बहुत जरुरत है वर्ना वो दिन दूर नहीं जब माँ बाप को अपने नालायक बेटों के ही पैर छूना पड़ा करेंगे...
कृपया आप सभी लोग अपनी अपनी सलाह देकर अनुग्रहित करने की कृपा करें एवम मेरे लेख में जो गलतियाँ हों उनको छोटा बालक समझकर आप प्यार से समझाने का कष्ट करें,
आपका-राम कृष्ण शर्मा

अब भी चेतो

अन्ना हजारे के आंदोलन के चलते देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ वातावरण बनने लगा है। लेकिन राजस्थान में अब भी उल्टा चक्र चल रहा है। यहां सरकार भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में पूरा दम लगा रही है। न सिर्फ मामले दबाए जा रहे हैं, बल्कि कोशिश की जा रही है कि भूल से भी ऎसी प्रणाली नहीं बन जाए, जिससे भ्रष्टाचार उजागर होने लग जाए।

पिछले दो-तीन वर्षो से राजस्थान में सरकार की शीर्ष प्राथमिकता जाति के आधार पर नियुक्तियां करने की हो गई है, जिसे "सोशल इंजीनियरिंग" नाम दिया गया है। भ्रष्टाचार से निपटने का एजेडा कचरा पेटी में डाल दिया गया है।

ताजा उदाहरण प्रस्तावित लोकसेवाओं की अदायगी एवं सुनवाई गारंटी विधेयक के हश्र का है। पिछले बजट में घोषणा के बावजूद इसे शायद इसलिए विधानसभा के अगले सत्र में नहीं लाया जा रहा क्योंकि ऎसा हो गया तो भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों व कर्मचारियों के खाने-कमाने के रास्ते बंद हो जाएंगे। नहीं लाने के लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े जा रहे हैं। लेकिन असलियत सिर्फ मंशा की है। मंशा होती है तो चौबीस घंटों में सचिवालय से उदयपुर तक फाइलें सरपट दौड़ा कर अवैध खानें आवंटित कर दी जाती हैं। मंशा नहीं हो तो कानों में रूई ठूंस ली जाती है।

लोकसेवा गारंटी विधेयक आता तो अफसरों को जनता से जुड़े -राशन कार्ड, बीपीएल कार्ड, बिजली-पानी कनेक्शन, शिक्षा के अधिकार के तहत दाखिले, वाहन लाइसेंस, जमीन के रिकार्ड की प्रति देने, चिकित्सा सेवा, पेंशन जैसे कार्य निर्घारित अवधि में हर हाल में पूरे करने पड़ते। यानी खाने-कमाने के रास्ते बंद! वह भी ऎसी कमाई जिसका हिस्सा ऊपर तक पहुंचता है। इसे कौन लागू होने देता? इसलिए विधेयक की फाइल ठंडे बस्ते में डाल दी गई। यदि विधेयक आया भी तो उसे सुनवाई का अधिकार हटाकर लचर बना दिया जाएगा।

मंत्री-अफसर मिलकर भ्रष्टाचार छिपाने के नए-नए तरीके ईजाद कर लेते हैं। केन्द्र में जन लोकपाल की बात हो रही है पर राजस्थान में लोकायुक्त के पास जांच एजेंसी तक नहीं है। लोकायुक्त की रिपोर्ट कभी जनता के समक्ष प्रस्तुत नहीं की जाती, उन पर कार्रवाई होना तो दूर की बात है। तमाम जांच आयोग बनते हैं, पर उनकी रिपोर्ट भी दबा दी जाती है। आयोग की रिपोर्टे तो क्या, बीज कंपनियों और झील कब्जाने वाली कंपनी के साथ हुए एम.ओ.यू. को भी छुपा कर रखा जाता है ताकि उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार की पोल न खुल जाए। कई बार तो मंत्री तक विधानसभा में बेशर्मी से घोटालेबाजों की पैरवी करते नजर आते हैं।


शर्म की बात यह भी है कि भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने के बावजूद मंत्रियों को पदों से हटाया नहीं जाता। चाहे वन भूमि में खान चलाने का मामला हो, अवैध क्रेशर चलाने का अथवा आटा पिसाई में गड़बड़ी का। मंत्रियों को बेशर्मी से पदों पर बनाए रखा जाता है।

भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बनाए गए सतर्कता आयुक्त व अधिकारी के पद सजावटी बन कर रह गए हैं। कई सतर्कता अधिकारी तो खुद दागी हैं, फिर भी चल रहे हैं। सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगने वाले को इतने चक्कर खिलाए जाते हैं कि अगला आवेदन लगाना भूल जाए। सूचनाओं के स्वैच्छिक प्रदर्शन को तो सरकारी अफसर अपनी तौहीन समझते हैं।


इंटरनेट को पारदर्शिता का सबसे अच्छा साधन माना जाता है, पर राजस्थान में वेबसाइटें ही अपडेट नहीं की जातीं। सरकारी खरीद के लिए ई-टेंडरिंग के विधेयक को भी भुला दिया गया क्योंकि इस बिल केआने से कमीशनखोरी के रास्ते बंद हो जाएंगे। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो यदि भ्रष्टाचार के मामले बना भी ले तो मुकदमे चलाने की मंजूरी की फाइलें नोटों के वजन के नीचे दब जाती हैं। जितना बड़ा भ्रष्टाचारी अफसर होता है, सेवानिवृत्ति के बाद उसे उतने ही "एक्सटेंशन" दे दिए जाते हैं।

केन्द्र ने तो फिर भी कुछ भ्रष्ट मंत्रियों को सींखचों में डाला है, पर राजस्थान में जातिगत समीकरणों के आधार पर उन्हें खुले हाथ खेलने की छूट दी गई है। "भ्रष्टाचार" को राजस्थान में "शिष्टाचार" बनाने वालों को याद रखना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं में चल रही लहर जिस दिन राजस्थान पहुंचेगी, भ्रष्टाचार को छुपाने वालों को प्रायश्चित का मौका भी नहीं मिलेगा।

कर्मयोग क्या है ?


कर्मयोग से तात्पर्य -
“अनासक्त भाव से कर्म करना”। कर्म के सही स्वरूप का ज्ञान।
कर्मयोग दो शब्दों से मिलकर बना है – ‘कर्म’ तथा ‘योग’ ।
कर्मयोग के सन्दर्भ ग्रन्थ – गीता, योगवाशिष्ठ एवं अन्य।

1. कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण –
कर्म से तात्पर्य है कि वे समस्त मानसिक एवं शारीरिक क्रियाएँ । ये क्रियाएँ दो प्रकार की हो सकती है। ऐच्छिक एवं अनैच्छिक। अनैच्छिक क्रियायें वे क्रियाएं हैं जो कि स्वतः होती हैं जैसे छींकना, श्वास-प्रश्वास का चलना, हृदय का धड़कना आदि। इस प्रकार अनैच्छिक क्रियाओं के अन्तर्गत वे क्रियाएँ भी आती हैं जो कि जबरदस्ती या बलात् करवायी गयी हैं। ऐच्छिक क्रियाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –
वे क्रियाएँ या कर्म जो कि सोच-समझकर ज्ञानसहित अथवा विवेकपूर्वक किये गये हैं,
वे क्रियाएँ या कर्म जो कि भूलवशात् या अज्ञानवशात् अथवा दबाव में किये गये हों।
दोनों ही स्थितियों में किसी न किसी सीमा तक व्यक्ति इन क्रियायों के फल के लिये उत्तरदायी होता है।
कर्मयोग की व्याख्या में उपरोक्त क्रियाओं के विवेचन के अतिरिक्त कर्मों के अन्य वर्गीकरण को देखना भी आवश्यक होगा।

2. कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण -
गीता में प्रयोजन का उद्देश्य की दृष्टि से कर्म का विशद् विवेचन किया गया है - इसके अन्तर्गत तीन प्रकार के विशिष्ट कर्मों की चर्चा की गयी है –
1. नित्य कर्म
2. नैमित्तिक कर्म
3. काम्य कर्म
नित्य कर्म - वे उत्तम परिशोधक कर्म हैं, जिन्हें प्रतिदिन किया जाना चाहिये। जैसे - शुद्धि कर्म, उपासना परक कर्म आदि।
नैमित्तिक कर्म - वे कर्म हैं, जिन्हें विशिष्टि निमित्त या पर्व को ध्यान में रखकर किया जाता है जैसे विशिष्ट यज्ञ कर्मादि – अश्वमेध यज्ञ, पूर्णमासी यज्ञ(व्रत) आदि।

काम्य कर्म - वे कर्म हैं जिन्हे कामना या इच्छा के वशीभूत होकर किया जाता है इस कामना में यह भाव भी समाहित रहता है कि कर्म का फल भी अनिवार्य रूप से मिले इसीलिये इन्हें काम्य कर्म कहा गया है। चूँकि इनमें फल की अभिलाषा जुड़ी हुयी है अतः यह कर्म ही कर्मफल के परिणाम सुख या दुःख (शुभ या अशुभ) से संयोग कराना वाला कहा गया है। इसीलिये काम्य कर्मों को बन्धन का कारण कहा गया है क्योंकि सुख अपने अनुभूति के द्वारा पुनः वैसे ही सुख की अनुभूति करने वाला कर्म की ओर ले जाता है, इसी प्रकार दुःख ऐसी विपरीत अनुभूति न हो इसके विरूद्ध कर्म कराने वाला बनाता है। इस प्रकार काम्य कर्म के अन्तर्गत किये गये कर्म अपने दोनों ही परिणामों (सुख तथा दुःख) के द्वारा बाँधते हैँ इसीलिये इन्हें बंधन का कारण कहा गया है। इसी काम्य कर्म के सुखद या दुःखद् परिणामों से निषेध के लिये भारतीय योग परम्परा में कर्मयोग की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। इस कर्मयोग को गीता में निष्काम कर्म एवं अनासक्त कर्म के नाम से भी प्रस्तुत किया गया है।

गीता में कर्मयोग
गीता में कर्मयोग स्रोत-ग्रन्थ - “गीता या कर्मयोग रहस्य”
“गीता या कर्मयोग रहस्य” नामक ग्रन्थ में बाल गंगाधर तिलक ने गीता का मूलमन्तव्य कर्मयोग ही बतलाया है। जो कि निष्काम कर्म ही है।
निष्काम से तात्पर्य – ‘कामना से रहित या वियुक्त’
निष्काम कर्म के सम्बन्ध में गीता का विश्लेषण निम्न मान्यताओं पर आधारित है –
कामना से वशीभूत कर्म करने पर फलांकाक्षा या फल की इच्छा होती है जो कि उनके सुखादुःख परिणामों से बाँधती है। और यह आगे भी पुनः उसी-उसी प्रकार के सुख-दुःख परिणामों को प्राप्त करने की इच्छा या संकल्प को उत्पन्न करती है। अर्थात् वैसे-वैसे ही कर्म में लगाकर रखती है। इन्हें ही संस्कार कहा गया है। ये संस्कार तब तक प्रभावी होते हैं, जब तक या तो फलों को भोग करने की क्षमता ही समाप्त हो जाये (अर्थात् मृत्यु या अक्षमता की स्थिति में) या फलों के भोग से इच्छा ही समाप्त हो जाये (तब अन्तोगत्वा कर्मों को करने की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी और इस प्रकार काम्य कर्म ही नहीं होंगे तो फल से भी नहीं बँधेगे)।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि फलों के परिणाम से आसक्ति समाप्त होना उनमें भोग की इच्छा समाप्त होना ही सुख-दुःख के परिणाम या कर्म के बन्धन से छूटना है। इसीपरिप्रेक्ष्य में गीता अपने विश्लेषण से निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म की अवधारणा को प्रस्तुत करती है।

गीता में कर्म की सविस्तार चर्चा की गयी है। एवं कर्म की गति गहन बतलायी गयी है – “गहना कर्मणो गति”। कृष्ण कहते हैं – कर्म को भी जानना चाहिये, अकर्म को भी जानना चाहिये, विकर्म को भी जानना चाहिये। इस प्रकार गीता में कर्म के जिन प्रकारों की चर्चा आयी है, वे हैं –
कर्म, अकर्म, विकर्म
आसक्त एवं अनासक्त कर्म
निष्काम कर्म
नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य कर्म

निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म
निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म – निष्काम कर्म वस्तुतः यह बताता है कि किस प्रकार कर्म किया जाय कि उससे फल से अर्थात् कर्म के बन्धन से न बँधे। इसके लिये ही गीता में प्रसिद्ध श्लोक जो कि बारंबार उल्लेखित किया जाता है –
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू मासङ्गोSस्त्वकर्मणि।।
अर्थात्, “तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं है, तुम कर्मफले के कारण भी मत बनो तथा कर्मों को न करने (की भावना के साथ) साथ भी मत हो ”।
गीता का उपरोक्त श्लोक कर्मयोग के सिद्धान्त का आधारभूत श्लोक है तथा विभिन्न तत्त्वमीमांसीय आधार(सिद्धान्त) को भी अपने आप में समाहित करता है
1. गुणों का सिद्धान्त – गीता के अनुसार समस्त प्रकृति सत् रजस् तथा तमस् इन तीनों गुणों की निष्पत्ति है। इसलिये प्रकृति को त्रिगुणात्मक भी कहा गया है। इसी के अनुरूप मानव देह भी त्रिगुत्मक है। इसमें सतोगुण से ज्ञान वृद्धि सुख आनन्द प्रदायक अनुभूति तथा ऐसे ही कार्य करने की प्रेरणा होती है। तथा इन फलों से बाँधने वाले भी ये गुण हैं। इसी प्रकार क्रिया परक, कार्यों को करने की प्रवृत्ति रजो गुण के कारण होती है क्योंकि रजोगुण का स्वभाव ही क्रिया है। इनसे सुख-दुःख की मिश्रित अनुभूति होती है। इस प्रकार की अनुभूति को कराने वाले तथा इनको उत्पादित करने वाले कर्मों में लगाने वाला रजो गुण है। अज्ञान, आलस्य जड़ता अन्धकार आदि को उत्पन्न करने वाला तमोगुण कहा गया है। इससे दुःख की उत्पत्ति एवं अनुभूति होती है। इस प्रकार समस्त दुःखोत्पादक कर्म या ऐसे कर्म जो आरम्भ में सुखद तथा परिमाण में दुःखानुभव उत्पन्न कराने वाले तमोगुण ही हैं – या ऐसे कर्म/ फल तमोगुण से प्रेरित कहे गये हैं। इस प्रकार समस्त फलों के उत्पादककर्ता गुण ही हैं। अहंकार से विमूढ़ित होने पर स्वयं के कर्ता होने का बोध होता है। ऐसी गीता की मान्यता है।

2. अनासक्त तथा निस्त्रैगुण्यता - उपरोक्त विश्लेषण से तीनों ही गुणों के स्वरूप के विषय में यह कहा जा सकता है कि सुख एवं दुःख को उत्पन्न करना तो इन गुणों स्वभाव ही है, और मानव देह भी प्रकृति के इन तीन गुणों के संयोजन से ही निर्मित है, तब ऐसे में स्वयं को सुख-दुःख का उत्पादन कर्ता समझना भूल ही है। ये सुख-दुःख परिणाम या फल हैं, जिनका कारण प्रकृति है। अतः इनमें आसक्त होना (आसक्त-आ सकना गुणों की जगह) ठीक नहीं है। (मा कर्मफल हेतुर्भू – कर्मफल का कारण मत बनो)।
इसी सन्दर्भ में गीता में निस्त्रैगुण्य होने को भी कहा गया है। (निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन)
पुनः क्या कर्म करना बन्द कर दिया जाय ? गीता ऐसा भी नही कहती। क्योंकि गीता की स्पष्ट मान्यता है कि कर्म प्रकृति जन्य तथा प्रकृति के गुणों से प्रेरित हैं। अतः जब तक प्रकृति का प्रभाव, पुरुष पर रहेगा (प्रकृति से पुरुष अपने आप को अलग नही समेझेगा) तब तक गुणों के अनुसार कर्म चलते रहेंगे। उनको टालना संभव नहीं है। ( इसी परिप्रेक्ष्य में गीता में कहा गया है - मा सङंगोsस्तुकर्मणि – अकर्म के साथ भी मत हो)। किन्तु जब ऐसा विवेक (अन्तर को जान सकने की बुद्धि, विभेदन कर सकने की क्षमता) उत्पन्न हो जाये या बोध हो जाये कि समस्त कर्म प्रकृति जन्य हैं, तब कर्मों से आसक्ति स्वंयमेव समाप्त हो जायेगी। ऐसी स्थिति में कर्म, काम्य कर्म नहीं होंगे। तब वे अनासक्त कर्म होंगे। यही आत्म बोध की भी स्थिति होगी क्योंकि आत्मस्वरूप जो कि प्रकृति के प्रभाव से पृथक है का बोध ही विवेक या कैवल्य है, मोक्ष है। इसे ही कर्म योग कहा गया है।

[1] प्रकृतैः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। - गीता 3 / 27
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। - गीता 3 / 28
[2] केवल – अकेला, प्रकृति से अलग, आत्म यानि स्वंय, अन्य सभी विकारों से रहित ।
[3] “मुच्यते सर्वै दुःखैर्बंधनैर्यत्र मोक्षः” – जहाँ(जब) सभी दुःख एवं बंधन छूट जाये, वही मोक्ष है।

कर्म योग की उपमा
कर्म योग की उपमा विवेकानन्द दीपक से देते हैं। जिस प्रकार दीपक का जलना एवं या उसके द्वारा प्रकाश का कर्म होना उसमें तेल, बाती तथा मिट्टी के विशिष्ट आकार - इन सभी के विशिष्ट सामूहिक भूमिका के द्वारा संभव होता है। उसी प्रकार समस्त गुणों की सामूहिक भूमिका से कर्म उत्पन्न होते हैं।
फलों की सृष्टि भी गुणों का कर्म है न कि आत्म का । इसी का ज्ञान वस्तुतः कर्म के रहस्य का ज्ञान है, इसे ही आत्म ज्ञान भी कहा गया है। तात्पर्य यह भी है कि संस्कार वशात् उत्तम-अनुत्तम कर्म में स्वतः ही प्रवृत्ति होती है, तथा संस्कारों के शमन होने पर स्वंय ही कर्मों से निवृत्ति भी हो जाती है, ऐसा जानना विवेक ज्ञान भी कहा गया है। ऐसे ज्ञान होने पर ही अनासक्त भाव से कर्म होने लगते हैं, इन अनासक्त कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा गया है। इस निष्काम कर्म के द्वारा पुनः कर्मों के परिणाम उत्पन्न नहीं होते। यही आत्म ज्ञान की स्थिति कही गयी है। इससे ही संयोग करने वाला मार्ग “कर्मयोग” कहा गया है। (क्योंकि यह कर्म के वास्तविक स्वरूप से योग करता है।)

उपसंहार
कर्मयोग की अवधारणा कर्म के सिद्धान्त के मूलमन्तव्यों को समाहित कर कर्मों के यथा-तथ्य विश्लेषण को प्रस्तुत करती है। यह पुरातन भारतीय सृष्टि रचना के गुण सिद्धान्त को भी अपने में अन्तर्निहित करता है। इस प्रकार कर्म योग का सिद्धान्त मनोदैहिक विश्लेषण के द्वारा व्यक्ति तथा अस्तित्व अध्यात्मपरक विवेचन को प्रस्तुत करता है।

Thursday, 15 September 2011

आतंकवाद के लिए अमेरिका भी गुनहगार


अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए विनाशकारी हमले को एक दशक बीत गया। हालांकि विश्व में आतंककारी घटनाएं लगभग रोज घट रहीं हैं, पर इतनी बर्बर, भयावह और अभूतपूर्व त्रासदी शायद अब तक कहीं देखी नहीं गई। हमारे मानस पटल पर यह ह्वदय विदारक वाकया इस कदर अंकित हो चुका है कि भुलाए नहीं भूलता और यह कहना गलत ना होगा कि जिस प्रकार इस घटना ने पिछले दशक में संसार के प्रजातांत्रिक ढांचे और आम जन-जीवन को प्रभावित किया है, उतना शायद हिरोशिमा या नागासाकी में गिरने वाले बम ने भी नहीं किया था।

ग्यारह सितम्बर 2001 के आतंककारी हमले के लिए हमेशा ही कट्टरपंथी गुटों को दोषी ठहराया जाता है, पर लोग भूल जाते हैं कि इस परिणिति के लिए बहुत हद तक अमेरिका का दमनकारी व्यवहार जिम्मेवार है जिसने विश्व में अस्थिरता फैलाई है। पिछले महायुद्ध के बाद, विश्व में उभरे तमाम तनावों और युद्धों के पीछे अमेरिका का ही हाथ रहा है। अरब-इजराइल, वियतनाम, कम्बोडिया, कोरिया, इराक-ईरान, भारत- पाकिस्तान के झगड़ों से लेकर अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना तक, सब के पीछे अमेरिकी साजिश उजागर हुई है। इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों की झूठी बात कह कर अमेरिका ने कैसे सद्दाम हुसैन का तख्ता पलटा? ये सब जानते हैं, पर बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि इंडोनेशिया में सुकार्नो, मिस्र में नासिर और क्यूबा में फिदेल कास्त्रो को मारने के भी षडयंत्र अमेरिका द्वारा रचे गए थे। यही नहीं, ईरान के प्रधानमंत्री को अपदस्थ कर जिस प्रकार अमेरिका ने दो दशक तक शाह का उपयोग कर ईरान के संसाधनों पर कब्जा जमा लिया, वो स्वार्थपूर्ति की निंदनीय मिसाल है। इसीलिए आज जब अमेरिका तालिबान व अल-कायदा को आतंकी बताता है तो हंसी आती है क्योंकि अफगानिस्तान में सोवियत रूस से लड़ाने के लिए, तालिबान और ओसामा बिन लादेन की स्थापना भी अमेरिका द्वारा ही की गई थी। पर इस सब के बावजूद, अगर उसे सत्य और मानवीय संवेदना का सर्वश्रेष्ठ गणतंत्र बताया जाता है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि जन प्रचार-प्रसार की अपार ताकत अमेरिकी हाथों में कैद है।

2001 के बाद, सुरक्षा के नाम पर अमेरिकी रूख ने विश्व में भय का ऎसा साम्राज्य स्थापित कर दिया है कि अब इससे निजात पाना लगभग नामुमकिन सा लगता है। दस साल बाद, मानव जीवन पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गया है। न्यूयॉर्क हमले में मारे गए लोगों के लिए आज विश्व भर में प्रार्थनाएं की जा रही हैं, पर क्या ये वक्त उन लाखों बेकसूरों के लिए भी आंसू बहाने का नहीं है जिन्हें अमेरिकी दमनकारी नीतियों द्वारा बेवजह कुचला गया? और क्या अब समय नहीं आ गया कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय तनाव का समाधान ढूंढे?
दीपक महान
वृतचित्र निर्देशक और लेखक

बोएं ईमानदारी का बीज...किरण बेदी

भ्रष्टाचार और हिंसा के जिस माहौल का हम आज सामना कर रहे हैं और पीडित हैं, उसका बीजारोपण तो आजादी के साथ ही हो गया था। मैं पिछले कुछ बरसों से देख रही हूं कि इस देश का प्रशासन दिन पर दिन गिरावट की ओर चला जा रहा है। इसकी वजह है- बढ़ता भ्रष्टाचार और भ्रष्ट आचरण। व्यवस्थित रूप से हमारी महान संस्थाओं का महत्व दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। इसमें राजनीतिक, ब्यूरोक्रेटिक, पुलिस, कॉरपोरेट या सेवाक्षेत्र का नेतृत्व शामिल है। केवल एक ही चीज का महत्व रह गया है, वह है खुद के लिए और परिवार के लिए सम्पदा एकत्रित करना। देश तो बाद में आता है। अनेक मामले तो ऎसे भी देखे गए हैं कि लोग विदेश का रूख कर लेते हैं क्योंकि उन्हें यहां अपने लिए कोई भविष्य नहीं दिखाई देता। सच्चाई यही है। इस तथ्य को चाहे कोई स्वीकार करे अथवा नहीं।

हमें कठिन संघर्षो के बाद आजादी मिली है। अनगिनत भारतीयों ने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्तमान खो दिया। देश की बलिवेदी पर शहीद हो गए। हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की खातिर हर कदम पर समझौता कर लेते हैं, बजाए इसके कि अपने देश के नैतिक चरित्र और प्रकृति को मजबूत करें। हालात इतने बदतर हो चुके हैं और होते जा रहे हैं कि सार्वजनिक जीवन से जुड़े ऎसे एक भी व्यक्ति को तलाश पाना मुश्किल हो रहा है कि जिस पर "हम जनता के लोग" सच्चे अर्थो में विश्वास कर सकें। इस गिरावट के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? माता-पिता/अध्यापक/आध्यात्मिक शिक्षा देने वाले धर्मगुरू/ राजनीतिक नेताओं /मीडिया को? हमारे ऊपर सर्वाधिक प्रभाव कौन डाल रहा है? मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि अधिकांश चीजों के लिए राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार है। कुछ सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह वर्ग अधोगति या अवनति का कारण बना हुआ है। जैसे कि वे दिन-प्रतिदिन लोभी और लालची बनते जा रहे हैं। वे येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्रतिष्ठान को अपने पास रखे रहते हैं। बिना यह विचार किए इसके दीर्घकालीन परिणाम क्या होंगे जो वे समाज में अपने पीछे छोड़कर जा रहे हैं?

इस पर गौर कीजिए, आजादी के बाद से उन्होंने पुलिस का किस तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने पुलिस को अपने खुद के पैरों पर खड़ा नहीं होने दिया। वे पुलिस का अपने राजनीतिक एजेंडे के खातिर इस्तेमाल करते रहे। उन्होंने इसमें नेतृत्व को कभी नहीं बढ़ने दिया। कोई भी व्यक्ति, जो स्वतंत्र सोच वाला था, उसे पाश्र्व में रखा गया। मैं खुद अनेक दफा इससे पीडित हुई हूं। मेरे साथ नाइंसाफ हुआ है। जब दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद के लिए मेरी वरिष्ठता की अनदेखी की गई तो इसकी वजह क्या थी? मूल कारण क्या थे? विशुद्ध रूप से ईष्र्या और असुरक्षा का खतरा...। क्या सिविल सोसाइटी इसके खिलाफ कुछ कर सकती है? और कर सकती है? लाखों लोगों की संख्या वाला पुलिस बल अपने भरोसे छोड़ दिया गया है। वे मुश्किल से और नाममात्र ही अपने नेता की प्रशंसा कर सकते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों तक उनकी पहुंच कभी-कभार ही हो पाती है। उनकी कोई सुनने वाला नहीं। उन्हें स्थानीय "ठगों" की दया पर छोड़ दिया गया है या उन पर जो सत्ता के केन्द्रों तक पहुंच का दावा करते हैं। क्या पुलिस बल को चलाने का यह तरीका है? पुलिस विभाग से जुड़े अधिकांश लोग अपने आवास का और अपने बच्चों के लिए स्कूल का प्रबंध खुद करते हैं। उन्हें आसानी से छुट्टी भी नहीं मिलती, जबकि उनकी सेवाएं हर बंदोबस्त या इंतजाम के लिए ली जाती हैं! चाहे वह वीआईपी सुरक्षा हो या जनसभाएं। ज्यादा अधिक नहीं। लोगों ने अब विद्रोह कर दिया है। लोग सड़क पर उतर आए हैं। वे खुले आम सड़कों पर आकर मिथ्या और बनावटी प्रशासन के खिलाफ बोलने लगे हैं। उनकी आवाज को बल मिला है और लोग संगठित होकर साथ-साथ आगे आए हैं। ऎसे लोगों को एक बार फिर अहिंसक रूप में मजबूती के साथ देखा गया। उनकी अहिंंसा देखने काबिल थी। इसके लिए अन्ना हजारे धन्यवाद के पात्र हैं।

इस देश के लोगों को गुणवत्ता, उत्कृष्टता, समेकता और अखंडता के पीछे चलना चाहिए। नागरिकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे निर्बाध और स्वतंत्र रूप से बोलें और खुले तरीके से विचार-विमर्श करें। उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र को विस्तृत करना चाहिए। उन्हें नेतृत्व के गुण बढ़ाने की अनुमति देनी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से पुलिस की एकाउंटिबिलिटी बढ़ानी चाहिए। उन्हें ब्यूरोक्रेट्स पर काम करने का दबाव बनाना चाहिए। अधिकारियों को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपनी टिप्पणियों में साफ-साफ लिखें कि जो वे सोचते हैं, वह सही है। लेकिन मंत्रियों के पास उनके प्रस्तावों को अस्वीकृत करने का अधिकार है। प्रशासन में जनता के विश्वास को फिर उत्पन्न करना चाहिए। यह सभी काम करने के लिए जरूरत है सत्यनिष्ठा की और ईमानदारी की। संसद ने भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक को पूरा समर्थन दिया है। अब इस पर पक्के इरादे की जरूरत है। एक बार लोकपाल बिल अस्तित्व में आ गया तो कई घोटाले सामने आएंगे और राजनेता व ब्यूरोक्रेट्स समेत काफी लोग घबड़ा उठेंगे। आप प्रकृति के नियम को नहीं बदल सकते। एक फसल काटता है तो एक बोता है। इस देश ने हिंसा, भ्रष्टाचार, भेदभाव और ढोंग की फसल बोई है। अब अपने किए का फल भोग रहे हैं।

आज से ही ईमानदारी की फसल बोना शुरू कीजिए और विश्वास की फसल कटना शुरू हो जाएगी।
किरण बेदी
पूर्व आईपीएस अधिकारी

भारतवर्ष की पहचान है हिन्दी


हर साल राजभाषा दिवस पर पूरे देश में व्यापक स्तर पर हिन्दी की बात की जाती है। इसके बाद हम फिर एक साल तक कुछ नहीं करते। जैसे भाषा का भी एक पर्व हो, जिसे हमें मनाना है। इस अवसर पर राजनेता से लेकर अधिकारी सभी इस तरह की सकारात्मक बातें करते हैं मसलन संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है और कम से कम और कहीं नहीं तो केंद्रीय दफ्तरों में अंग्रेजी के साथ हर जगह हिन्दी लिखी जाती है। इससे सिद्ध होता रहता है कि संविधान का पालन हो रहा है और हिन्दी इस देश की राजभाष्ाा है।

जब हम किसी देश के अपने भूगोल में रहते हैं तो भाषा की एक संपर्क व्यवस्था के बीच रहना ही नहीं बल्कि व्यवहार भी करना होता है। भारत में शैक्षणिक और प्रशासनिक स्तर पर फिर से अंग्रेेजी के बढ़ते प्रभाव के बीच अब जनसंचार में लगने लगा है कि तेजी से अंग्रेजी आ रही है या कम से कम हिन्दी का प्रयोग अंग्रेजी को मिलाकर ही हो रहा है। इसे अब हिंगरेजी या हिंग्लिश कहा जाने लगा है। भाषा विज्ञान में यह कहा जाता है कि जब अविकसित भाषाएं विकसित भाषाओं के साथ मिलाकर बोली जाती हैं तो वे क्रियोल कहलाती हैं। इस अर्थ में हिन्दी क्रियोल भी नहीं है, क्योंकि ये अविकसित भाषा नहीं है। खड़ी बोली को अब हिन्दी कहा जाता है और हिन्दी में कभी अवधी और ब्रज को भाषाएं कहा गया था, वे अब बोलियां हो गई हैं। राजभाषा हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली हिन्दी ही है। आज इसी हिन्दी में हिन्दी का सारा साहित्य लिखा जा रहा है।

शिक्षण माध्यम के रूप में हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं की जगह अब अंग्रेजी लेती जा रही है। विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक कार्य भी अंग्रेजी में हो रहा है। इसका कारण यह बताया जाता है कि अब भूमंडलीयकरण के कारण अंग्रेजी जरूरी हो गई है। दूसरा कारण यह बताया जाता है कम्प्यूटर के प्रयोग में रोमन, नागरी से अधिक सुविधाजनक है। वैसे अब बिल गेट्स का ध्यान नागरी कम्प्यूटर की ओर भी गया है। अच्छा होता कि यदि भारतीय भाष्ााओं की एक लिपि नागरी होती विश्व के स्तर पर इस व्यापक समानता के कारण इस लिपि के एक अरब से ज्यादा उपयोग करने वाले होते। हमारा देश स्वतंत्रता प्राप्ति के दो दशक बाद से ही केवल भाषा की राजनीति में जुट गया है। वोट बैंक की राजनीति के चलते हम किसी को नाखुश नहीं करना चाहते। सारा नजरिया इस बात का है कि कोई भी भाषा हो हमें क्या फर्क पड़ता है? इस उदासीनता के कारण ही संविधान में राजभाषा का दर्जा प्राप्त होते हुए भी शीर्षस्थ न्यायालयों में हिन्दी का प्रवेश नहीं हो पाया है। हिन्दी को राजनेताओं और नौकरशाहों से तो अधिक उम्मीद नहीं थी, पर हम जनसंचार माध्यमों से बड़ी उम्मीद रखते थे।

बॉलीवुड ने हिन्दी को विश्व परिदृश्य दिया था। जब हम विदेशी फिल्मों को हिन्दी में डब होते देखते थे तो बहुत अच्छी हिन्दी सुनने मिलती थी। यह परिदृश्य भी बड़ी तेजी से बदल रहा है। अब डबिंग में भी इतने अंगे्रजी शब्दों आ रहे हैं कि वे हिंग्लिश लगते हैं। हम तो यह भी नहीं कह सकते कि विश्व हिन्दी सम्मेलन एक उम्मीद जगाते हैं, क्योंकि केवल हिन्दी सम्मेलन आयोजित करने से हिन्दी विश्व भाषा नहीं बन सकती। जो लोक प्रक्रिया को समझते हैं वे यह मानते हैं कि जब तक सरकार के स्तर पर विश्व के कम से कम 96 देशों का समर्थन नहीं मिलता तब तक हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बन सकती। स्वतंत्रता के पूर्व राजनेताओं ने यह अहसास किया था कि हिन्दी ही जनता की भाष्ाा है।

यह भारत के बहुसंख्यक समाज द्वारा बोली जाती है और इससे भी अधिक लोग इसे समझते हैं। इस बात की खुशी है कि हिन्दी भले ही राजभाषा न बन पा रही हो पर उसका जनभाष्ाा का रूप फैलता जा रहा है। इसी तरह बिना संयुक्त राष्ट्र की मान्यता के भी हिन्दी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। विदेशों में भी हिन्दी बोलने और समझने वालों की बहुतायत है। इस तरह भारत की पहचान हिन्दी से है।